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शुभ कार्य में नारियल को फोड़ा जाता है?🙏🙏👇





किसी भी कार्य का शुभारंभ नारियल फोड़कर किया जाता है। नारियल को भारतीय सभ्यता में शुभ और मंगलकारी माना गया है। इसलिए पूजा-पाठ और मंगल कार्यों में इसका उपयोग किया जाता है। 
हिंदू परंपरा में नारियल सौभाग्य और समृद्धि की निशानी होती है। नारियल भगवान गणेश को चढ़ाया जाता है और फिर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।नारियल इस धरती के सबसे पवित्र फलों में से एक है। इसलिए इस फल को लोग भगवान को चढ़ाते हैं।

ऋषि विश्वामित्र को नारियल का निर्माता माना जाता है। इसकी ऊपरी सख्त सतह इस बात को दर्शाती है कि किसी भी काम में सफलता हासिल करने के लिए आपको मेहनत करनी होती है।

नारियल एक सख्त सतह और फिर एक नर्म सतह होता है और फिर इसके अंदर पानी होता है जो बहुत पवित्र माना जाता है। इस पानी में किसी भी तरह की कोई मिलावट नहीं होती है। नारियल भगवान गणेश का पसंदीदा फल है। इसलिए नया घर या नई गाड़ी लेने पर फोड़ा जाता है। इसका पवित्र पानी जब चारों तरफ फैलता है तो नकारात्मक शक्तियां दूर हो जाती हैं। 

नारियल तोड़ने का मतलब अपने अहम को तोड़ना है। नारियल इंसान के शरीर को प्रदर्शित करता है और जब आप इसे तोड़ते हैं तो इसका मतलब है कि आपने खुद को ब्रह्मांड में सम्मिलित कर लिया है। नारियल में मौजूद तीन चिन्ह, भगवान शिव की आंखें मानी जाती है। इसलिए कहा जाता है कि यह आपकी हर मनोकामनाएं पूरी करता है।

नारियल को संस्कृत में 'श्रीफल' कहा जाता है और ' श्री' का अर्थ लक्ष्मी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, लक्ष्मी के बिना कोई भी शुभ काम पूर्ण नहीं होता है। इसीलिए शुभ कार्यों में नारियल का इस्तेमाल अवश्य होता है। नारियल के पेड़ को संस्कृत में 'कल्पवृक्ष' भी कहा जाता है। 'कल्पवृक्ष' सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करता है। पूजा के बाद नारियल को फोड़ा जाता है और प्रसाद के रूप में सब में वितरित किया जाता ह 

1#भक्त प्रह्लाद की कहानी 🙏🙏🌹🌹👍👍❤️❤️

विष्णु पुराण में भक्त प्रह्लाद की कथा का उल्लेख है। प्रह्लाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे। आइये विस्तार से जानते हैं भक्त प्रह्लाद की कहानी जो अत्यंत रोचक और बच्चों के लिए प्रेरणादायक है।

सनकादि ऋषियों के शाप के कारण भगवान विष्णु के पार्षद जय एवं विजय को दैत्ययोनि में जन्म लेना पड़ा था।
महर्षि कश्यप की पत्नी दक्षपुत्री दिति के गर्भ से दो बड़े पराक्रमी बालकों का जन्म हुआ। इनमें से बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष था।

दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी। दोनों ही महाबलशाली, पराक्रमी और आत्मबल संपन्न थे। दोनों भाइयों ने युद्ध में विश्व को परास्त करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।

एक समय जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को रसातल में ले लिया तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी की रक्षा के लिए हिरण्याक्ष का वध कियाअपने प्रिय भाई हिरण्याक्ष के वध से व्यान्यकशिपु ने दैत्यों को प्रजा पर अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया।

वह भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा।

शोक दैत्यों के राज्य को राजाविहीन देखकर दुनिया ने उन पर आक्रमण कर दिया। दैत्यगण इस युद्ध में पराजित होकर पाताललोक में भाग लिए।

देवराज इंद्र ने हिरण्यकशिपु के महल में प्रवेश कर अपनी पत्नी अवैध को बांध लिया। उस समय प्रेक्षित था, इसलिए इंद्र उसे साथ लेकर अमरावती की ओर जाने लगे।

रास्ते में उनकी देवर्षि नारद से खाताधारक हो गए। नारद जी ने पुछा – “देवराज ! इसे कहां ले जा रहे हो? "

इन्द्र ने कहा – ” देवर्षे ! इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु का मूल है, इसे मार कर इसे छोड़ दें। "

यह सुनकर नारदजी ने कहा – “देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद्भक्त है, जो आपकी शक्ति के बाहर गिरता है, इसलिए इसे दो छोड़ देता है। "।
नारदजी के कथन का मान रखते हुए इन्द्र ने छायाधू को छोड़ दिया और अमरावती चले गए।

नारदजी कयाधु को अपने अजर पर ले आओ और उससे कहो – “बेटी! तुम यहाँ आराम से पहले जब तक घनिष्ठ पति अपनी तपस्या पूरी करके नहीं लौटता। "

छेदाधू उस पवित्र अज्ञान में नारदजी के सुन्दर प्रवचनों का लाभ हुई हुई सुखपूर्वक रहने लगी जिसका गर्भ में पल रहे शिशु पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।

समय होने पर अवैध ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।

विनाश हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी तरह से हुई और वह ब्रह्माजी से मनचाहा वरदान लेकर वापस अपनी राजधानी चला गया।

कुछ समय बाद खैयाधू भी प्रह्लाद को लेकर नारदजी के आश्रम से राजमहल में आ गया।जब प्रह्लाद कुछ बड़े हुए तब हिरण्यकशिपु ने अपनी शिक्षा की व्यवस्था की। प्रह्लाद गुरु के सन्निध्य में शिक्षा ग्रहण करें।

एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मंत्री के सदन में बैठा था। उसी समय प्रह्लाद अपने गुरु के साथ वहाँ गए।

प्रह्लाद को प्रणाम करते हुए हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी गोद में बिठाकर दुलार किया और कहा -

“वत्स! अभी तक अध्ययन में निरंतर तत्पर जो कुछ खुश हैं, उसमें से कुछ अच्छी बातें सूनो। "

तब प्रह्लाद बोले – “अपमानजनक ! मैं अब तक जो कुछ खुश हूं उसका सारांश आपको सुना रहा हूं। जो आदि, मध्य और अंत से अनुपयोगी, अजन्मा, वृद्धि-क्षय से शुन्य और उत्कृष्टयुत हैं, सभी कारणों के कारण तथा जगत की स्थिति और अंत कर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूं। "

यह सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे, उसने कांपते हुए होठों से प्रह्लाद के गुरु से कहा -
अरे दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा करके इस बालक को मेरे परम शत्रु की स्तुति से युक्त शिक्षा कैसे दी ? "गुरुजी ने कहा – “दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आपका बेटा मेरी सिखाई गई बात नहीं कह रहा है। "

हिरण्यकशिपु बोला – “बेटा प्रह्लाद ! लगता है तुम्हें यह शिक्षा कौन देता है ? तुम्हारे गुरुजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नहीं है। "

प्रह्लाद बोले – “संवेदी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो संपूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उन्हें छोड़कर और किन्हें कोई खुश कर सकता है। "

हिरण्यकशिपु बोला – ” अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू निष्शंक स्तुति कर रहा है, वह मेरे सामने कौन है ? मेरे रहने और कौन परमेश्वर हो सकता है ? फिर भी तू मौत की खबर में जाने की इक्षा से बार-बार ऐसा बक रहा है। "

ऐसा देश हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को कई प्रकार से समन पर प्रह्लाद के मन से श्रीहरि के प्रति भक्ति और श्रद्धाभाव को कम नहीं पाया। तब अत्यंत क्रोधित हुई हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा –

“अरे! यह परम दुरात्मा है। इसे मार डालो। अब इसका वनक्षेत्र से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह शत्रुप्रेमी तो अपने कुल का ही नाश करने वाला हो गया है। "

हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उसके सैनिक प्रह्लाद को कई प्रकार से मारने की चेष्टा के पर उनके सभी प्रयासों श्रीहरि की कृपा से प्रभावित हो जाते थे।

उन सैनिकों ने प्रह्लाद पर कई प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से आघात होने पर प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उन्होंने प्रह्लाद के पैर-पैर फुटकर समुद्र में डाल दिया पर प्रह्लाद फिर भी बच गए।

उन सबने प्रह्लाद को कई दृश्यमान सर्पों से दसवाया और पर्वत शिखर से गिराया पर भगवद्कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ।

रसोइयों द्वारा विष मिलाए गए भोजन देने पर प्रह्लाद उसे भी पचा गए।

यह भी पढ़े:जब प्रह्लाद को मारने के सभी प्रकार के प्रयास विफल हो जाते हैं तब हिरण्यकशिपु के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान समानता वाली शारीरिक क्रियाओं को प्राप्त कर लिया।

उस अति उग्र कृत्या ने अपने पैरों से पृथ्वी को कम्प्यूट करते हुए दिखाई देते हैं बड़े क्रोध से प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से झटका किया। पर उस बालक के छाती में ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर निचे गिरा पड़ा।

उन पापी पुरोहितों ने उस निष्कपटपाप बालक पर क्रिया का प्रयोग किया था। इसलिए कृत्या ने तुरंत ही उन पुरोहितों पर वार कर दिया और स्वयं भी नष्ट हो गया।

अन्य परिस्थितियों में कार्य के स्थान पर होलिका का नाम प्रकट होता है जिसे अग्नि में कोई वरदान प्राप्त नहीं हुआ था।

होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गई पर ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ और होलिका जल कर भस्म हो गई।

भगवान का नृसिंह अवतार
हिरण्यकशिपु के दूतों ने जब उसे खबर सुनाई तो वह अत्यंत कर्तव्यनिष्ठ हो गया और उसने प्रह्लाद को अपने सदन में बुलवाया।

हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा - "रे दुष्ट! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी बहकी बातें करता है, तीखा वह ईश्वर खाता है ? वह सर्वत्र है तो मुझे इस खंबे में क्यों दिखाई नहीं देता ? "
यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे हुए स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंघासन से कूद पड़ा और बड़ा जोर से उस खंबे में एक घूणसा मारा।

उसी समय उस खंबे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खंबे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी निकल गया जिसका आधा शरीर सिंह और आधा शरीर मनुष्य था।

यह भगवान श्रीहरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था।

वे तपाये हुए सोने के समान पीले पीले रंग में थे, उनके दाढ़ें बड़े विकराल थे और वे भयंकर शब्द से गर्जन कर रहे थे। उनके करीब जाने का खुलासा किसी में नहीं हो रहा था।

यह देखकर हिरण्यकशिपु सिंघनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा।

तब भगवान भी हिरण्यकशिपु के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को तोड़कर उसे धरती पर पटक दिया ।

फिर वहां अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़ खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु के ऊँचे सिंघासन पर विराजमान हो गए।

उनकी क्रोधपूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनकी प्रसन्नता का बोध नहीं हो रहा था।

हिरण्यकशिपु की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इंद्र, शंकर, सभी देवगण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गन्धर्व आदि पहुंचे और थोड़ी दूर पर स्थित सभी ने अंजलि करार कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ।

तब वैश्विक माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजे जाने पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी आत्माभिमानी हो गईं।

तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – “बेटा! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध थे, अब तुम्ही चले जाओ उन्हें शांत करो। "

तब प्रह्लाद भगवान के निकट जाकर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे।

बालक प्रह्लाद को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयाद्र हो गए और उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेमपूर्वक कहा -

” वत्स प्रह्लाद ! आपके जैसे एकांतप्रेमी भक्त को हालांकि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती है पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी चेतना के लिए इस लोक में दैत्यपति के सभी भोग स्वीकार कर लो।

भोग के पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ गोगे। देवलोक में भी लोग पूरी तरह कीर्ति का गान करेंगे। "

यह भिन्न भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।

विष्णु पुराण में पराशर जी कहते हैं – “भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसका पाप ही नष्ट हो जाता है। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है।

जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उनकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनते हैं। "

संबंधितभोग के पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ गोगे। देवलोक में भी लोग पूरी तरह कीर्ति का गान करेंगे। "

यह भिन्न भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।

विष्णु पुराण में पराशर जी कहते हैं – “भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसका पाप ही नष्ट हो जाता है। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है।

जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उनकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनते हैं।
धन्यवाद🙏❤️👍🌹🙋



1#शिव भक्त की कहानी (आंसू रोक नहीं पयोगे )🌹🌹🙏🙏😭😭

एक अद्भुत कवी संत थे जिनका जनम कर्नाटक में हुआ था | उनका नाम था दासिमैया वह इतने अछे बुनकर थे की उनोने एक बार बहुत माहिम और बहुत सूंदर पगड़ी का कपडा बुनना शुरू किया | बुनते बुनते उनको पूरा एक महीना लगा आखिर उनोने वह कपडा बुन ही लिया और क्युकि उनकी कमाई भी इससे से होती थी| फिर एक दिन वह उसे बेचने के लिया बाजार ले गए |

वह कपडा इतना सूंदर था की किस ने भी उस कपडे की कीमत नहीं पूछी | सभी को लगा की ये बहुत महंगा होगा | फिर वह अपने कपडे के साथ वापिस आ रहे थे |एक अद्भुत कवी संत थे जिनका जनम कर्नाटक में हुआ था | उनका नाम था दासिमैया वह इतने अछे बुनकर थे की उनोने एक बार बहुत माहिम और बहुत सूंदर पगड़ी का कपडा बुनना शुरू किया | बुनते बुनते उनको पूरा एक महीना लगा आखिर उनोने वह कपडा बुन ही लिया और क्युकि उनकी कमाई भी इससे से होती थी| फिर एक दिन वह उसे बेचने के लिया बाजार ले गए  | नो

वह कपडा इतना सूंदर था की किस ने भी उस कपडे की कीमत नहीं पूछी | सभी को लगा की ये बहुत महंगा होगा | फिर वह अपने कपडे के साथ वापिस आ रहे थे |रस्ते में उने एक बूढ़ा आदमी बैठा मिला| उसने दासिमैया की तरफ देखकर कहा में कांप रहा हु |क्या तम मुझे वह कपडा दे सकते हो |दयालु भाव होने के कारन दासिमैया ने वह कपडा वह बूढ़े आदमी को वो कपडा दे दिया |


उस आदमी ने वह कपडा खोला और उस कपडे के कई टुकड़े करदिया | एक टुकड़ा उसने अपने सिर पर भांध लिया दूसरा अपने छाती पर और दो छोटे टुकड़े अपने पैरो पर और हाथो पर भांध कर बैठ गया |

दासिमैया बस देखते रहे अचानक से बूढ़ा आदमी में ने पूछा क्या कोई दिकत है | दासिमैया बोलै नहीं बस यह कपडा बस आपका ही है आप जो चाहे कर सकते है | फिर दासिमैया उस बूढ़े आदमी को अपने घर खाने खिलाने के लिए ले गए | लेकिन घर पर खाने के लिए कुछ नहीं था अतिथि को देखकर उनकी पत्नी बोली घर में इतना खाना भी नहीं की आप खा सके और आप एक मेहमान साथ ले आये| दासिमैया फिर परेशान होकर कहा चलो मेरा छोड़ो घर में जो भी तिल फूल है उसे बनाकर ले आओ|

तो फिर क्या था अपने भक्त को ज्यादा दिएर असमंजस में पड़ा नहीं देख पाए |वह बूढ़ा आदमी और कोई नहीं वह भगवान शिव थे | वह दासिमैया की हालत देख अपने वास्तविक रूप में आ गये |

फिर भगवान शिव एक मुठी चावल उनके अनाज के बर्तन में डाल दिया | वह बर्तन अक्षय बन गया भाव: की जिसका कभी अंत न हो |उस बर्तन में फिर कभी भी अनाज ख़तम नहीं हुआ यानि वह कभी खली नहीं हुआ | दासिमैया और उनकी पत्नी ने उस बर्तन से बहुत से लोगो की मदद की यानि बहुत से बुखो को खाना भी खिलाया और स्वयं भी उससे ही भोजन पाया |


यह था दासिमैया की कथा | उनकी भक्ति ,कविताये और उनकी अनुपस्तिथि ने कई लोगो को रूपांतरित किया और कई लोगो कि हिरदय परिवर्तन किया | इस वजह से लोगो दासिमैया को देवरा दासिमिया कहने लगे |देवरा कि भाव अर्थ: यह है की जो ईश्वर का है |

भोलेनाथ को पहने के लिए कुछ ज्यादा यातन करने की भी जरूरत नहीं पढ़ती बाबा तो बस प्रेम की डोर से खींचे चले आते है | मन में अचे भाव हो हिरदय में प्रभु का नाम हो | सबको एक ही द्रिष्टि से देखा जाये है और यह सोचा सब शिव के अंश |


पढ़ने के बाद comment करके बताये आपको कैसे लगे यह कथा और कमेंट में ॐ नमः शिवाय लिखना न भूले| दोस्तों को भी share करे | हर हर महादेव 🙏🙏👍👍🙋🙋😘😘

इस लघु कहानी से समझिए भक्ति की शक्ति🙏🌹

अगर आप अपने आराध्य के प्रति समर्पित हैं तो आपका कोई काम नहीं रुक सकता है। यहां तक कि भाग्य में खराब लिखा है तो वह भी अच्छा हो जाएगा।
एक चिड़िया जंगल में एक पेड़ पर रहती थी। जंगल बिलकुल सूखा हुआ था। न घास, न पेड़, न फूल, न फल। जिस वृक्ष पर चिड़िया रहती थी उस पर भी सिर्फ सूखी टहनियाँ थीं। पत्ते भी नहीं थे। चिड़िया वहीं रह कर हर समय शंकर भगवान का जाप और गुणगान करती रहती थी।

एक बार नारद जी जंगल में हो कर जा रहे थे। चिड़िया ने देख लिया। तुरंत आकर बोली नारद जी आप कहाँ जा रहे है। नारद ने कहा शंकरजी के पास जा रहा हूँ। चिड़िया ने कहा भगवान शंकर मेरा बड़ा ध्यान रखते है। मेरे सूखे जंगल के बारे में उन्हें पता नहीं है शायद। कृपया उनसे कह दीजिएगा मेरे जंगल को हरा भरा कर दें।

नारद जी शंकर जी के पास जाकर चिड़िया के जंगल की बात की, नारद के कई बार कहने पर शंकर जी ने कहा मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता हूँ नारद। चिड़िया के भाग्य में सात जन्म, ऐसे ही सूखे जंगल में रहना लिखा है। नारद कुछ नहीं बोले।

कुछ समय बाद नारद जी फिर वहाँ से निकले तो देखा जंगल बिल्कुल बदला हुआ था। जंगल हरा भरा, हरी घास, फूल, फल लदे हुये थे। चिड़िया का पेड़ फूलों और फलों से लदा था। चिड़िया भी प्रेममग्न होकर पेड़ पर नाच रही थी। नारद जी ने सोचा शंकर जी ने मुझ से झूठ बोला।

नारद जी ने शंकर जी से जंगल के हरे भरे तथा चिड़िया के बारे में पूछा तो शंकरजी ने कहा कि मैनें चिड़िया को कभी कुछ नहीं दिया, फिर भी मेरा गुणगान करती रहती है। उसकी भक्ति, विश्वास और प्रेम की वजह से मुझे सातों जन्म काट कर सब चिड़िया को देना पड़ा। ऐसे दयालु हैं हमारे भोलेनाथ।

लक्ष्मी माता के 18 पुत्रो के नाम 🙏🏻🙏🏻👇

1.ॐ देवसखाय नम: 2. ॐ चिक्लीताय नम:

भक्ति स्टोरी घरेलू नुस्खे आदि 🙏🌹