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1#मेरा भगवान बचाएगा : ईश्वर भक्ति कहानी






एक समय की बात है किसी गाँव में एक साधु रहता था, वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त था
और निरंतर एक पेड़ के नीचे बैठ कर तपस्या किया करता था ।
उसका भगवान पर अटूट विश्वास था और गाँव वाले भी उसकी इज्ज़त करते थे।
एक बार गाँव में बहुत भीषण बाढ़ आ गई । चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा,
सभी लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊँचे स्थानों की तरफ बढ़ने लगे ।

जब लोगों ने देखा कि साधु महाराज अभी भी पेड़ के नीचे बैठे भगवान का नाम जप रहे हैं तो
उन्हें यह जगह छोड़ने की सलाह दी । परंतु साधु ने कहा-
” तुम लोग अपनी जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा!”
धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ता गया और पानी साधु के कमर तक आ पहुंचा,
इतने में वहां से एक नाव गुजरी।

मल्लाह ने कहा- ” हे साधू महाराज आप इस नाव पर सवार हो जाइए
मैं आपको सुरक्षित स्थान तक पहुंचा दूंगा ।”
“नहीं, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा !!“ साधु ने उत्तर दिया।
नाव वाला चुप-चाप वहां से चला गया।

मेरा भगवान बचाएगा – ईश्वर भक्ति कहानी

कुछ देर बाद बाढ़ और प्रचंड हो गयी, साधु ने पेड़ पर चढ़ना उचित समझा और वहां बैठ कर
ईश्वर को याद करने लगा । तभी अचानक उन्हें गड़गडाहट की आवाज़ सुनाई दी,
एक हेलिकोप्टर उनकी मदद के लिए आ पहुंचा, बचाव दल ने एक रस्सी लटकाई और
साधु को उसे जोर से पकड़ने का आग्रह किया।
पर साधु फिर बोला-” मैं इसे नहीं पकडूँगा, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा ।”
उनकी हठ के आगे बचाव दल भी उन्हें लिए बगैर वहां से चला गया ।

कुछ ही देर में पेड़ बाढ़ की धारा में बह गया और साधु की मृत्यु हो गयी ।
मरने के बाद साधु महाराज स्वर्ग पहुंचे और भगवान से बोले -. ” हे प्रभु ! मैंने तुम्हारी पूरी लगन के साथ आराधना की…
तपस्या की पर जब मै पानी में डूब कर मर रहा था तब
तुम मुझे बचाने नहीं आये, ऐसा क्यों प्रभु बोले, ”हे महात्मन् मै तुम्हारी रक्षा करने एक नहीं बल्कि तीन बार आया,

पहला, ग्रामीणों के रूप में, दूसरा नाव वाले के रूप में, और तीसरा हेलीकाप्टर बचाव दल के रूप में.
किन्तु तुम मेरे इन अवसरों को पहचान नहीं पाए ।”

मित्रों, इस जीवन में ईश्वर हमें कई अवसर देता है,
किसी ना किसी को माध्यम बनाकर हर समय हमारे साथ ही रहता है । लेकिन हम
अपने अहंकार के कारण उन्हे पहचान नही पाते ।
अवसरों की प्रकृति भी कुछ ऐसी होती है ।
यदि हम उन्हें पहचान कर उनका लाभ उठा लेते है तो वे हमें हमारी मंजिल तक पंहुचा देते है,
अन्यथा हमें बाद में पछताना ही पड़ता है ।

धन्यवाद आपका फुल रीड आर्टिकल 🙏🏻🙏🏻

1#भक्त प्रह्लाद की कहानी 🙏🙏🌹🌹👍👍❤️❤️

विष्णु पुराण में भक्त प्रह्लाद की कथा का उल्लेख है। प्रह्लाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे। आइये विस्तार से जानते हैं भक्त प्रह्लाद की कहानी जो अत्यंत रोचक और बच्चों के लिए प्रेरणादायक है।

सनकादि ऋषियों के शाप के कारण भगवान विष्णु के पार्षद जय एवं विजय को दैत्ययोनि में जन्म लेना पड़ा था।
महर्षि कश्यप की पत्नी दक्षपुत्री दिति के गर्भ से दो बड़े पराक्रमी बालकों का जन्म हुआ। इनमें से बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष था।

दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी। दोनों ही महाबलशाली, पराक्रमी और आत्मबल संपन्न थे। दोनों भाइयों ने युद्ध में विश्व को परास्त करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।

एक समय जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को रसातल में ले लिया तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी की रक्षा के लिए हिरण्याक्ष का वध कियाअपने प्रिय भाई हिरण्याक्ष के वध से व्यान्यकशिपु ने दैत्यों को प्रजा पर अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया।

वह भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा।

शोक दैत्यों के राज्य को राजाविहीन देखकर दुनिया ने उन पर आक्रमण कर दिया। दैत्यगण इस युद्ध में पराजित होकर पाताललोक में भाग लिए।

देवराज इंद्र ने हिरण्यकशिपु के महल में प्रवेश कर अपनी पत्नी अवैध को बांध लिया। उस समय प्रेक्षित था, इसलिए इंद्र उसे साथ लेकर अमरावती की ओर जाने लगे।

रास्ते में उनकी देवर्षि नारद से खाताधारक हो गए। नारद जी ने पुछा – “देवराज ! इसे कहां ले जा रहे हो? "

इन्द्र ने कहा – ” देवर्षे ! इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु का मूल है, इसे मार कर इसे छोड़ दें। "

यह सुनकर नारदजी ने कहा – “देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद्भक्त है, जो आपकी शक्ति के बाहर गिरता है, इसलिए इसे दो छोड़ देता है। "।
नारदजी के कथन का मान रखते हुए इन्द्र ने छायाधू को छोड़ दिया और अमरावती चले गए।

नारदजी कयाधु को अपने अजर पर ले आओ और उससे कहो – “बेटी! तुम यहाँ आराम से पहले जब तक घनिष्ठ पति अपनी तपस्या पूरी करके नहीं लौटता। "

छेदाधू उस पवित्र अज्ञान में नारदजी के सुन्दर प्रवचनों का लाभ हुई हुई सुखपूर्वक रहने लगी जिसका गर्भ में पल रहे शिशु पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।

समय होने पर अवैध ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।

विनाश हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी तरह से हुई और वह ब्रह्माजी से मनचाहा वरदान लेकर वापस अपनी राजधानी चला गया।

कुछ समय बाद खैयाधू भी प्रह्लाद को लेकर नारदजी के आश्रम से राजमहल में आ गया।जब प्रह्लाद कुछ बड़े हुए तब हिरण्यकशिपु ने अपनी शिक्षा की व्यवस्था की। प्रह्लाद गुरु के सन्निध्य में शिक्षा ग्रहण करें।

एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मंत्री के सदन में बैठा था। उसी समय प्रह्लाद अपने गुरु के साथ वहाँ गए।

प्रह्लाद को प्रणाम करते हुए हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी गोद में बिठाकर दुलार किया और कहा -

“वत्स! अभी तक अध्ययन में निरंतर तत्पर जो कुछ खुश हैं, उसमें से कुछ अच्छी बातें सूनो। "

तब प्रह्लाद बोले – “अपमानजनक ! मैं अब तक जो कुछ खुश हूं उसका सारांश आपको सुना रहा हूं। जो आदि, मध्य और अंत से अनुपयोगी, अजन्मा, वृद्धि-क्षय से शुन्य और उत्कृष्टयुत हैं, सभी कारणों के कारण तथा जगत की स्थिति और अंत कर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूं। "

यह सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे, उसने कांपते हुए होठों से प्रह्लाद के गुरु से कहा -
अरे दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा करके इस बालक को मेरे परम शत्रु की स्तुति से युक्त शिक्षा कैसे दी ? "गुरुजी ने कहा – “दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आपका बेटा मेरी सिखाई गई बात नहीं कह रहा है। "

हिरण्यकशिपु बोला – “बेटा प्रह्लाद ! लगता है तुम्हें यह शिक्षा कौन देता है ? तुम्हारे गुरुजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नहीं है। "

प्रह्लाद बोले – “संवेदी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो संपूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उन्हें छोड़कर और किन्हें कोई खुश कर सकता है। "

हिरण्यकशिपु बोला – ” अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू निष्शंक स्तुति कर रहा है, वह मेरे सामने कौन है ? मेरे रहने और कौन परमेश्वर हो सकता है ? फिर भी तू मौत की खबर में जाने की इक्षा से बार-बार ऐसा बक रहा है। "

ऐसा देश हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को कई प्रकार से समन पर प्रह्लाद के मन से श्रीहरि के प्रति भक्ति और श्रद्धाभाव को कम नहीं पाया। तब अत्यंत क्रोधित हुई हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा –

“अरे! यह परम दुरात्मा है। इसे मार डालो। अब इसका वनक्षेत्र से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह शत्रुप्रेमी तो अपने कुल का ही नाश करने वाला हो गया है। "

हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उसके सैनिक प्रह्लाद को कई प्रकार से मारने की चेष्टा के पर उनके सभी प्रयासों श्रीहरि की कृपा से प्रभावित हो जाते थे।

उन सैनिकों ने प्रह्लाद पर कई प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से आघात होने पर प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उन्होंने प्रह्लाद के पैर-पैर फुटकर समुद्र में डाल दिया पर प्रह्लाद फिर भी बच गए।

उन सबने प्रह्लाद को कई दृश्यमान सर्पों से दसवाया और पर्वत शिखर से गिराया पर भगवद्कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ।

रसोइयों द्वारा विष मिलाए गए भोजन देने पर प्रह्लाद उसे भी पचा गए।

यह भी पढ़े:जब प्रह्लाद को मारने के सभी प्रकार के प्रयास विफल हो जाते हैं तब हिरण्यकशिपु के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान समानता वाली शारीरिक क्रियाओं को प्राप्त कर लिया।

उस अति उग्र कृत्या ने अपने पैरों से पृथ्वी को कम्प्यूट करते हुए दिखाई देते हैं बड़े क्रोध से प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से झटका किया। पर उस बालक के छाती में ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर निचे गिरा पड़ा।

उन पापी पुरोहितों ने उस निष्कपटपाप बालक पर क्रिया का प्रयोग किया था। इसलिए कृत्या ने तुरंत ही उन पुरोहितों पर वार कर दिया और स्वयं भी नष्ट हो गया।

अन्य परिस्थितियों में कार्य के स्थान पर होलिका का नाम प्रकट होता है जिसे अग्नि में कोई वरदान प्राप्त नहीं हुआ था।

होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गई पर ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ और होलिका जल कर भस्म हो गई।

भगवान का नृसिंह अवतार
हिरण्यकशिपु के दूतों ने जब उसे खबर सुनाई तो वह अत्यंत कर्तव्यनिष्ठ हो गया और उसने प्रह्लाद को अपने सदन में बुलवाया।

हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा - "रे दुष्ट! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी बहकी बातें करता है, तीखा वह ईश्वर खाता है ? वह सर्वत्र है तो मुझे इस खंबे में क्यों दिखाई नहीं देता ? "
यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे हुए स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंघासन से कूद पड़ा और बड़ा जोर से उस खंबे में एक घूणसा मारा।

उसी समय उस खंबे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खंबे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी निकल गया जिसका आधा शरीर सिंह और आधा शरीर मनुष्य था।

यह भगवान श्रीहरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था।

वे तपाये हुए सोने के समान पीले पीले रंग में थे, उनके दाढ़ें बड़े विकराल थे और वे भयंकर शब्द से गर्जन कर रहे थे। उनके करीब जाने का खुलासा किसी में नहीं हो रहा था।

यह देखकर हिरण्यकशिपु सिंघनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा।

तब भगवान भी हिरण्यकशिपु के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को तोड़कर उसे धरती पर पटक दिया ।

फिर वहां अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़ खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु के ऊँचे सिंघासन पर विराजमान हो गए।

उनकी क्रोधपूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनकी प्रसन्नता का बोध नहीं हो रहा था।

हिरण्यकशिपु की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इंद्र, शंकर, सभी देवगण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गन्धर्व आदि पहुंचे और थोड़ी दूर पर स्थित सभी ने अंजलि करार कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ।

तब वैश्विक माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजे जाने पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी आत्माभिमानी हो गईं।

तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – “बेटा! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध थे, अब तुम्ही चले जाओ उन्हें शांत करो। "

तब प्रह्लाद भगवान के निकट जाकर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे।

बालक प्रह्लाद को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयाद्र हो गए और उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेमपूर्वक कहा -

” वत्स प्रह्लाद ! आपके जैसे एकांतप्रेमी भक्त को हालांकि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती है पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी चेतना के लिए इस लोक में दैत्यपति के सभी भोग स्वीकार कर लो।

भोग के पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ गोगे। देवलोक में भी लोग पूरी तरह कीर्ति का गान करेंगे। "

यह भिन्न भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।

विष्णु पुराण में पराशर जी कहते हैं – “भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसका पाप ही नष्ट हो जाता है। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है।

जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उनकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनते हैं। "

संबंधितभोग के पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ गोगे। देवलोक में भी लोग पूरी तरह कीर्ति का गान करेंगे। "

यह भिन्न भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।

विष्णु पुराण में पराशर जी कहते हैं – “भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसका पाप ही नष्ट हो जाता है। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है।

जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उनकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनते हैं।
धन्यवाद🙏❤️👍🌹🙋



जानिये चरणमृत का महत्व🙏🙏❤️❤️🙋🙋🌹🌹 comment








अक्सर जब हम मंदिर जाते हैं तो पंडित जी हमें भगवान का चरणमृत देते हैं। क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की। कि चरणामृत का क्या महत्व है? शास्त्रों में कहा गया है –
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णोः पदोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

“अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप-व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है। जो चरणामृत पीता है उसका पुन: जन्म नहीं होता है। जब भगवान का वामन अवतार हुआ, और वे राजा बलि की यज्ञशाला में दान लेने लगे तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप के लिए जब वे पहले पग में नीचे के लोक नाप के लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक उनके चरण में तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने मंडल में रख लिया। वह चरणामृत गंगा जी बन गई, जो आज भी पूरी दुनिया के पापों को धोती है, ये शक्ति उनके पास कहां से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की। जिस पर ब्रह्मा जी ने सामान्य जल चढाया था पर स्टैज का स्पर्श होते ही गंगा जी बन गए। जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते हैं तो कहते हैं – “चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने पूरी दुनिया तारीधर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से स्थापित करने के बाद इसे मनाया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना जाता है। कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उन्हें चरणमृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गए बल्कि उन्होंने अपने महत्वाकांक्षी को भी तार दिया। चरणामृत का जल हमेशा ब्रेंजा के पात्र में रखा जाता है। आयुर्वेदिक मतानुसार ब्रेज़ेन के पात्र में कई अभियुक्तों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो जल में रखे जाते हैं। उस जल का सेवन करने से शरीर में कॉम्पिटिशन से महिलाओं की क्षमता पैदा हो जाती है और बीमारी नहीं होती। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और बढ़ जाती है। तुलसी के पत्तों पर जल परिमाण में सरसों का दाना डूब जाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति प्राप्त होती है। इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि इसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ कार्य या अच्छे काम का परिणाम जल्द मिलता है। इसलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेते हैं, लेकिन चरणमृत लेने के बाद ज्यादातर लोगों की यह आदत होती है कि वे अपने हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं? विशेष रूप से शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना नहीं माना जाता है। कहते हैं कि इस विचार में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती जा रही है। इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ फेरना नहीं चाहिए।” लेकिन चरणामृत लेने के बाद ज्यादातर लोगों की यह आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं? विशेष रूप से शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना नहीं माना जाता है। कहते हैं कि इस विचार में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती जा रही है। इसलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ फेरना नहीं चाहिए।”

एक महिला की आदत थी कि हर रोज सोने से पहले लिखने कि...

मैं खुश हूं कि मेरा पति पूरी रात खर्राटे लेता पर रहता है, क्योंकि वह जिंदा है और मेरे पास है। ये ईश्वर का शुक्र है.....मैं खुश हूं कि मेरा बेटा सुबह सबेरे इस बात पर शाम करता है, कि रात भर मच्छर खटमल सोना नहीं देता। यानी वह रात को घर पर गुजारा करता है, आवारागर्दी नहीं करता। ईश्वर का शुक्र है.....
मैं खुश हूं कि दिन खत्म होने तक मेरा थकान से बुरा हाल हो जाता है। यानी मेरे दिन अंदर भर सख़्त काम करने की ताक़त और हिम्मत, सिर्फ ईश्वर की मेहर से है....मैं खुश हूं, कि हर महीने बिजली, गैस, पेट्रोल, पानी वगैरह का, अच्छा खासा टैक्स देना है। यानी ये सब चीजें मेरे पास, मेरे इस्तेमाल में हैं. अगर यह ना होता तो जीवन कितना मुश्किल होता ? ईश्वर का शुक्र है.....मैं खुश हूं कि हर साल त्योहारों पर मैं तोहफे में पर्स खाली हो जाता है। यानी मेरे पास चाहने वाले, मेरे अज़ीज़, रिश्ते, दोस्त, अपने हैं, जिन्हें तोहफा दे सु। अगर ये ना हो, तो जीवन कितना बेरौनक हो..? ईश्वर का शुक्र है.....मैं खुश हूं कि हर रोज अपने घर का झाडू पोछा करना है, और दरवाज़े-खिड़कियों को साफ करना है। शुक्र है, मेरे पास घर तो है. जिनके पास छत नहीं, उनका क्या हाल होगा ? ईश्वर का, शुक्र है....
प्रेरक उद्धरण

khani bhagwan❤️ bhole ke bhakt ki......

कहानी भगवान भोले नाथ  भक्त की

प्रभु जानते थे कि यह मेरा निर्मल भक्त है| छल कपट नहीं जानता| अब तो प्रगट होना ही पड़ेगा|
भक्त धन्ना जी का जन्म मुंबई के पास धुआन गाँव में एक जाट घराने में हुआ| आप के माता पिता कृषि और पशु पालन करके अपना जीवन यापन करते थे| वह बहुत निर्धन थे| जैसे ही धन्ना बड़ा हुआ उसे भी पशु चराने के काम में लगा दिया| वह प्रतिदिन पशु चराने जाया करता।
गाँव के बाहर ही कच्चे तालाब के किनारे एक ठाकुर द्वार था जिसमे बहुत सारी ठाकुरों की मूर्तियाँ रखी हुई थी| लोग प्रतिदिन वहाँ आकर माथा टेकते व भेंटा अर्पण करते| धन्ना पंडित को ठाकुरों की पूजा करते, स्नान करवाते व घंटियाँ खड़काते रोज देखता| अल्पबुद्धि का होने के कारण वह समझ न पाता| एक दिन उसके मन में आया कि देखतें हैं कि क्या है| उसने एक दिन पंडित से पूछ ही लिया कि आप मूर्तियों के आगे बैठकर आप क्या करते हो? पंडित ने कहा ठाकुर की सेवा करते हैं| जिनसे कि मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं| धन्ने ने कहा, यह ठाकुर मुझे भी दे दो| उससे छुटकारा पाने के लिए पंडित ने कपड़े में पत्थर लपेटकर दे दिया|
घर जाकर धन्ने ने पत्थर को ठाकुर समझकर स्नान कराया और भोग लगाने के लिए कहने लगा| उसने ठाकुर के आगे बहुत मिन्नते की| धन्ने ने कसम खाई कि यदि ठाकुर जी आप नहीं खायेंगे तो मैं भी भूखा ही रहूंगा| उसका यह प्रण देखकर प्रभु प्रगट हुए तथा रोटी खाई व लस्सी पी| इस प्रकार धन्ने ने अपने भोलेपन में पूजा करने और साफ मन से पत्थर में भी भगवान को पा लिया|
जब धन्ने को लगन लगी उस समय उसके माता – पिता बूढ़े हों चूके थे और अकेला नव युवक था| उसे ख्याल आया कि ठाकुर को पूजा से खुश करके यदि सब कुछ हासिल किया जा सकता है तो उसे अवश्य ही यह करना होगा जिससे घर की गरीबी चली जाए तथा सुख आए| ऐसा सोच कर ही वह पंडित के पास गया| पंडित ने पहले ठाकुर देने से मना के दिया की वह ठाकुर की पूजा अकेले नहीं कर पायेगा. | दूसरा तुम अनपढ़ हो| तीसरा ठाकुर जी मन्दिर के बिना कही नहीं रहते और न ही प्रसन्न होते| इसलिए तुम जिद्द मत करो और खेतों की संभाल करो| ब्रहामण का धर्म है पूजा पाठ करना| जाट का कार्य है अनाज पैदा करना|परन्तु धन्ना टस से मस न हुआ| अपनी पिटाई के डर से पंडित ने जो सालीीग्राम मन्दिर में फालतू पड़ा था उठाकर धन्ने को दे दिया और पूजा – पाठ की विधि भी बता दी| पूरी रात धन्ने को नींद न आई| वह पूरी रात सोचता रहा कि ठाकुर को कैसे प्रसन्न करेगा और उनसे क्या माँगेगा| सुबह उठकर अपने नहाने के बाद ठाकुर को स्नान कराया| भक्ति भाव से बैठकर लस्सी रिडकी व रोटी पकाई| उसने प्रार्थना की, हे प्रभु! भोग लगाओ! मुझ गरीब के पास रोटी, लस्सी और मखन ही है और कुछ नहीं| जब और चीजे दोगे तब आपके आगे रख दूँगा| वह बैठा ठाकुर जी को देखता रहा| अब पत्थर भोजन कैसे करे? पंडित तो भोग का बहाना लगाकर सारी सामग्री घर ले जाता था| पर भले बालक को इस बात का कहाँ ज्ञान था| वह व्याकुल होकर कहने लगा कि क्या आप जाट का प्रसाद नहीं खाते? दादा तो इतनी देर नहीं लगाते थे| यदि आज आपने प्रसाद न खाया तो मैं मर जाऊंगा लेकिन आपके बगैर नहीं खाऊंगा|
प्रभु जानते थे कि यह मेरा निर्मल भक्त है| छल कपट नहीं जानता| अब तो प्रगट होना ही पड़ेगा| एक घंटा और बीतने के बाद धन्ना क्या देखता है कि श्री कृष्ण रूप भगवान जी रोटी मखन के साथ खा रहे हैं और लस्सी पी रहें हैं| भोजन खा कर प्रभु बोले धन्ने जो इच्छा है मांग लो मैं तुम पर प्रसन्न हूँ| धन्ने ने हाथ जोड़कर बिनती की —
भाव- जो तुम्हारी भक्ति करते हैं तू उनके कार्य संवार देता है| मुझे गेंहू, दाल व घी दीजिए| मैं खुश हो जाऊंगा यदि जूता, कपड़े, साथ प्रकार के आनाज, गाय या भैंस, सवारी करने के लिए घोड़ी तथा घर की देखभाल करने के लिए सुन्दर नारी मुझे दें|
धन्ने के यह वचन सुनकर प्रभु हँस पड़े और बोले यह सब वस्तुएं तुम्हें मिल जाएँगी|
प्रभु बोले – अन्य कुछ?

प्रभु! मैं जब भी आपको याद करू आप दर्शन दीजिए| यदि कोई जरुरत हुई तो बताऊंगा|

तथास्तु! भगवान ने उत्तर दिया|

हे प्रभु! धन्ना आज से आपका आजीवन सेवक हुआ| आपके इलावा किसी अन्य का नाम नहीं लूँगा| धन्ना खुशी से दीवाना हो गया| उसकी आँखे बन्द हो गई| जब आँखे खोली तो प्रभु वहाँ नहीं थे| वह पत्थर का सालगराम वहाँ पड़ा था| उसने बर्तन में बचा हुआ प्रसाद खाया जिससे उसे तीन लोको का ज्ञान हो गया|

प्रभु के दर्शनों के कुछ दिन पश्चात धन्ने के घर सारी खुशियाँ आ गई| एक अच्छे अमीर घर में उसका विवाह हो गया| उसकी बिना बोई भूमि पर भी फसल लहलहा गई| उसने जो जो प्रभु से माँगा था उसे सब मिल गया|

किसी ने धन्ने को कहा चाहे प्रभु तुम पर प्रसन्न हैं तुम्हें फिर भी गुरु धारण करना चाहिए| उसने स्वामी रामानंद जी का नाम बताया| एक दिन अचानक ही रामानंद जी उधर से निकले| भक्त धन्ने ने दिल से उनकी खूब सेवा की तथा दीक्षा की मांग की| रामानंद जी ने उनकी विनती स्वीकार कर ली और दीक्षा देकर धन्ने को अपना शिष्य बना लिया| धन्ना भगवान के नाम का सुमिरन करने लगा|.......
YouTube channel    धन्ने के यह वचन सुनकर प्रभु हँस पड़े और बोले यह सब वस्तुएं तुम्हें मिल जाएँगी|
प्रभु बोले – अन्य कुछ?

प्रभु! मैं जब भी आपको याद करू आप दर्शन दीजिए| यदि कोई जरुरत हुई तो बताऊंगा|

तथास्तु! भगवान ने उत्तर दिया|

हे प्रभु! धन्ना आज से आपका आजीवन सेवक हुआ| आपके इलावा किसी अन्य का नाम नहीं लूँगा| धन्ना खुशी से दीवाना हो गया| उसकी आँखे बन्द हो गई| जब आँखे खोली तो प्रभु वहाँ नहीं थे| वह पत्थर का सालगराम वहाँ पड़ा था| उसने बर्तन में बचा हुआ प्रसाद खाया जिससे उसे तीन लोको का ज्ञान हो गया|

प्रभु के दर्शनों के कुछ दिन पश्चात धन्ने के घर सारी खुशियाँ आ गई| एक अच्छे अमीर घर में उसका विवाह हो गया| उसकी बिना बोई भूमि पर भी फसल लहलहा गई| उसने जो जो प्रभु से माँगा था उसे सब मिल गया|

किसी ने धन्ने को कहा चाहे प्रभु तुम पर प्रसन्न हैं तुम्हें फिर भी गुरु धारण करना चाहिए| उसने स्वामी रामानंद जी का नाम बताया| एक दिन अचानक ही रामानंद जी उधर से निकले| भक्त धन्ने ने दिल से उनकी खूब सेवा की तथा दीक्षा की मांग की| रामानंद जी ने उनकी विनती स्वीकार कर ली और दीक्षा देकर धन्ने को अपना शिष्य बना लिया| धन्ना भगवान के नाम का सुमिरन 

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लक्ष्मी माता के 18 पुत्रो के नाम 🙏🏻🙏🏻👇

1.ॐ देवसखाय नम: 2. ॐ चिक्लीताय नम:

भक्ति स्टोरी घरेलू नुस्खे आदि 🙏🌹